Friday, May 18, 2012

...ताकि बचा रहे ब्लॉग परिवार Blog Parivar

सारी धरती एक परिवार है।
बड़ा ब्लॉगर ऐसा मानता है।
इसीलिए जब भी मौक़ा मिलता है, वह अपने परिवार से मिलने के लिए निकल लेता है। श्रीनगर की डल झील से लेकर थाईलैंड के मसाज पार्लर तक वह घूम चुका है। अब उसकी नज़र इस कॉन्टिनेंट से बाहर जाने की है।
ब्लॉगर ब्लॉगिंग के सहारे घूमता है। जितना वह घूमता है, उससे ज़्यादा उसका दिमाग़ घूमता है।
विदेशी ब्लॉगर के दिल को पहले मोम करो फिर उसमें अपनी छाप छोड़ दो।
हरेक आदमी अपना नाम और सम्मान चाहता है। यह डेल कारनेगी ने भी बताया है और दूसरों ने भी।
जिसे अपना बनाना चाहो, उसके नाम का गुणगान करो, उसे ईनाम दो।
वह दिल से ही कहेगा कि आप भी आना कभी हमारे घर यानि विदेश में।
बस हो गया काम।
विदेश में तो तरसते हैं कि कोई आ जाए अपने देस से।
वहां जितने भी देसी आबाद हैं, अपनी सोच से वे भी विदेशी हो चुके हैं।
अपना टाइम देने से पहले वह 10 बार सोचता है। यहां के लोगों के पास टाइम की भरमार है। जितना चाहे उतना टाइम ले लो।
विदेशी ब्लॉगर को नवाज़ने से विदेशी ब्लॉगर को दोहरा लाभ होता है और ख़ुद नवाज़ने वाले को भी। एक तो विदेश घूमने का मौक़ा मिला और दूसरे, उससे बड़े ख़ुद हो गये क्योंकि ‘देने वाला हाथ बड़ा होता है लेने वाले से‘।
ईनाम देता ही बड़ा है।
विदेशी दौरे से लौटकर फिर वह वहां के फ़ोटो दिखाएगा जैसे कि झारखंड के लोग दिल्ली में आकर रहते हैं और जब अपने गांव लौटते हैं तो अपनी फ़ोटो दिखाते हैं। उसके रिश्तेदारों में उसका रूतबा कितना बढ़ जाता होगा ?
आप सोच सकते हैं।
विदेशी दौरे के बाद हिंदी ब्लॉगर का रूतबा भी बढ़ता है। ज़्यादा लोगों से संपर्क भी रूतबा बढ़ाता है। 20-30 लोग भी साथ हो जाएं तो एक अकादमी बनाई जा सकती है। इसे बेस बनाकर राजनीतिक पहुंच वालों तक भी पहुंचा जा सकता है।
बड़ा ब्लॉगर जानता है ब्लॉगिंग उर्फ़ न्यू मीडिया की ताक़त। सरकारें तक झुक रही हैं इसके सामने।
सरकारों को ऐसे आदमी चाहिएं जो उन्हें ‘न्यू मीडिया‘ के सामने झुकने से बचा सकें।
देश में अख़बार हैं और क्रांति के हालात भी हैं लेकिन क्रांति नहीं है।
इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पब्लिक को इतने सारे मैच और मनोरंजन दिखाता है कि कुछ देर के लिए सारी हताशा हवा हो जाती है। ‘शीला की जवानी‘ देखकर युवा वर्ग की सोच का रूख़ ही बदल जाता है। क्रांतिकारियों को मरता छोड़कर वह शीला की तलाश में चल देता है और जब शीला उसे मिलती है तो फिर सोनू, मोनू और मुन्नी ख़ुद ही उसके आंगन में खेलने लगती हैं।
शादी करते ही उसकी सारी गर्मी हवा हो जाती है।
आज़ादी की लड़ाई में गरम दल में वही थे जो अपने कुंवारेपन को बचा पाए। शादी शुदा लोगों की गर्मी और हेकड़ी निकल चुकी थी। सो वे नरम दल में थे और अवज्ञा आंदोलन तक ‘सविनय‘ चलाया करते थे।
देश में प्योर देसी बहुत थे लेकिन लोगों को नेहरू पसंद आए क्योंकि वह अंग्रेज़ों को पसंद थे और उनकी बीवियों को भी। नेहरू से लेकर राजीव तक सभी अंग्रेज़ों को बहुत पसंद थे। अंग्रेज़ों की पसंद को नकारना आज भी हिंदुस्तानियों के बस का नहीं है। ब्लॉगिंग और फ़ेसबुक की शुरूआत भी अंग्रेज़ों ने ही की है।
विचार की शक्ति हथियार की शक्ति से हमेशा ज़्यादा होती है। सरकारें इस शक्ति से डरी हुई हैं। सरकारों को ऐसे लोगों की तलाश है जो ईनाम ले सकें।
ईनाम लेने के बदले में उन्हें ब्लॉगिंग की दिशा को नियंत्रित रखना होगा।
यह एक बड़ी डील है जो निकट भविष्य में होने जा रही है।
सौदा उसी से होगा जो विदेश रिटर्न होगा और ब्लॉगिंग में कुछ रूतबा रखता होगा।
इधर उधर घूमना फिरना और ईनाम बांटना भविष्य की उसी योजना की तैयारी है।
गणतंत्र बचाने वाली कहानियां लिखना भी उसी योजना का हिस्सा है यानि कि प्लान लंबा है।
जो आज उसकी आलोचना कर रहे हैं, कल वह उन्हें बेच चुका होगा और किसी को पता भी न चलेगा।
ब्लॉग जगत भी एक परिवार है।
जो परिवार को ही बेच दे, वह बड़ा ब्लॉगर नहीं होता।
बड़ा ब्लॉगर वह है जो परिवार को पहले ही ख़बरदार कर दे कि तुम्हें कैसे बेचा जाने वाला है ?

Wednesday, May 16, 2012

बुराई को फैलने से रोकना है तो भलाई को सराहो

‘करे कोई और भरे कोई‘ कहावत का एक उदाहरण
किसी ब्लॉगर महिला ने कहा कि ‘मुहब्बत चूड़ियों की सलामती की मोहताज नहीं होती‘,
यह सुनते ही हमें मुग़ल ए आज़म जलालुददीन मुहम्मद अकबर का डायलॉग याद आया कि हमारा इंसाफ़ आपकी अंधी ममता का मोहताज नहीं है।
यानि कि इंसाफ़ ममता का मोहताज नहीं है और मुहब्बत चूड़ियों की मोहताज नहीं है।
यहां हरेक ख़ुदमुख्तार है और पूरी तरह बाइख्तियार है।
कल कोई कह सकता है कि ‘मुहब्बत गददे तकिए की मोहताज नहीं है‘
वैसे भी मुहब्बत करने वालों को नींद कहां आती है ?
मुहब्बत का नाम ही रोंगटे खड़े कर देता है।
ऐसी रोमांचकारी कविताएं पढ़ पढ़ कर बूढ़े ब्लॉगर्स के हॉर्मोन फिर से रिसने लगे हैं। कविता लिखता है कोई और चूड़ियां और खाट टूटती है किसी और की।
इसे कहते हैं कि ‘करे कोई और भरे कोई‘।



ख़ैर एक पुरूष ब्लॉगर ने मीडिया और कॉरपोरेट जगत की मिलीभगत का भांडाफोड़ करते हुए आमिर के ‘सत्यमेव जयते‘ की क़लई खोल दी। कहने लगे कि यह सब प्रायोजित है।
अरे भाई, टी.वी. के कार्यक्रम प्रायोजित ही होते हैं और बड़े स्टार के कार्यक्रम के प्रायोजक भी बड़े ही होते हैं। इसमें चौंकाने वाली बात तो कुछ भी नहीं है।
चौंकाने वाली बात तो यह है कि अब हिंदी ब्लॉग एग्रीगेटर और ब्लॉगर्स भी इधर उधर से माल पकड़ रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों तक से माल पकड़ रहे हैं।
कौन कहां से माल पकड़ रहा है ?
इसकी क़लई खोलो तो जानें !!!
...लेकिन अपनी क़लई ख़ुद कैसे खोल दें ?

आमिर ख़ान का नाम लेकर मुख़ालिफ़त कर रहे हैं लेकिन किसी ब्लॉगर की मुख़ालिफ़त का नंबर आए तो कन्नी काट जाएंगे।
ब्लॉगर्स की बहादुरी के रंग भी निराले हैं और ईमानदारी के भी।

बात यह है कि आदमी की अंतरात्मा ईमानदार होती है। उल्टे सीधे धंधों से कमाने के बावजूद अपनी अंतरात्मा को संतुष्ट रखना भी ज़रूरी होता है वर्ना आदमी जी नहीं पाएगा। तब आदमी यह करता है वह ऐसे लोगों की पोल खोलने लगता है जो कि उसका कुछ बिगाड़ न पाएं बल्कि उन्हें पता भी न चले कि किसी ने उनकी मुख़ालिफ़त की है।
इससे आदमी भी सेफ़ रहता है और उसकी अंतरात्मा भी संतुष्ट रहती है।
यह आम ब्लॉगर का रास्ता है जबकि बड़ा ब्लॉगर विश्लेषण और आलोचना की शुरूआत अपने आप से करता है।
सूफ़ी संतों का मार्ग भी यही है। यही चीज़ उन्हें ख़ास बनाती है।

उनका तरीक़ा यह भी है कि भलाई के काम को सराहो।
भलाई के काम को सराहना न मिली तो फिर उसे करने वाले बुराई के काम करेंगे।
बुराई को फैलने से रोकना है तो भलाई को सराहो।
बुराई से लड़ने का काम तो सिर्फ़ बड़ा ब्लॉगर ही कर सकता है लेकिन भलाई को सराहने जैसा आसान काम करना भी आजकल हरेक ब्लॉगर के बस का नहीं है।