जब से कविता जी की कविता हिट हुई है तब से ब्लॉग जगत में अजीब सी गहमा गहमी है। ब्लॉगर्स को कविता जी से बड़ी उम्मीदें हो गई हैं। पहले तो वे जैसे दूसरे ब्लॉग पर जाते थे वैसे ही इस ब्लॉग पर भी ‘गहरे भाव‘, ‘सुंदर अभिव्यक्ति‘ और ‘दिल को छूने वाली रचना‘ कहकर निकल आते थे लेकिन अब वे सचमुच तलाश करते हैं कि कौन सी बात दिल को छू रही है ?
न भी छू रही हो तो पुरानी कविता को ही याद कर लेते हैं।
वाह क्या कविता थी ?
दिल को क्या पूरे के पूरे वुजूद को ही छू कर और हिला कर जो रख दिया था उसने।
आज तक हिल रहे हैं और लुत्फ़ ले रहे हैं।
जवान तो जवान बूढ़े भी कम नहीं हैं।
ज़रा बुड्ढों की दाद देखा कीजिए।
किस किस स्टाइल में दाद देते हैं।
आज का जवान पुराने जवान जैसा नहीं रहा तो आज के बुड्ढों का भी पुराने बुड्ढों की तरह ऐतबार क्या ?
यह तो च्यवनप्राश का देश पहले से ही था और अब तो नई नई तकनीकें और आ गई हैं। कौन जाने किसने क्या खा रखा हो या क्या लगा रखा हो ?
कॉलेज की लड़कियों ने भी एक सर्वे में बताया कि हमें नौजवानों से ज़्यादा डर बुड्ढों से लगता है। ये ‘बेटा बेटा‘ कहकर कहीं भी सहला देते हैं।
जब से कविता हिट हुई है तब से यही डर कविता करने वाली दूसरी ब्लॉगर्स के दिल में भी बैठ गया है कि जाने यह बुड्ढा कहीं उसी कविता की पिनक में तो यहां नहीं आ धमका ?
क्या ज़माना आ गया है कि नारियां कविता करने से पहले और उपमा देने से पहले सत्तर बार सोचती हैं कि इसके भाव ब्लॉगर्स के दिल में कितने गहरे उतरेंगे ?
कहीं ज़्यादा गहरे उतर गए तो जान आफ़त में आ जाएगी।
उपमाएं और अलंकार ही उनकी जान बचा लेते हैं। किसी के पल्ले पड़ती है और किसी के नहीं ?
यह पुराना स्टाइल है कविता का।
नए स्टाइल की कविता में यह सब नहीं चलता। इसमें सब कुछ खुला खेल फ़र्रूख़ाबादी है।
इसमें तो साफ़ बता दिया जाता है कि मेरे महबूब की आंखें हरे कलर की हैं और वह बिन बुलाए चला आता है।
टिप्पणी देने के लिए महबूब स्टाइल में ब्लॉगर्स पहले से ही बिन बुलाए जाने के आदी हैं। सो हरेक को आधे लक्षण तो अपने में ही घटते हुए लगे। बाक़ी रहा आई कलर, सो वह भी बदला जा सकता है। आंख का रंग बदलकर ज़िंदगी रंगीन हो सकती है तो क्या बुरा है ?
जब से नई कविता में महबूब की आंख का रंग पता चला है तो हरेक अपनी आंख का रंग हरा करने पर तुला हुआ है। कोई हरे पत्तों का अर्क़ सुबह शाम डाल रहा है तो किसी ने हरे रंग के लेंस का ही ऑर्डर दे दिया है।
अब सारे टिप्पणीकार जब अगली कविता पढ़ने जाएंगे तो सबकी आंखें हरी हरी होंगी। इतने सारे हरी आंखों वाले देखकर कवयित्री महोदया परेशान हो जाएंगी कि इनमें से मेरा महबूब कौन है ?
और हो सकता है उस दिन असली हरी आंख वाला वहां पहुंचे ही नहीं।
इसी आस में ब्लॉगर्स टिप्पणियां कर रहे हैं वर्ना तो यही ब्लॉगर उससे भी अच्छी कविता पर नहीं पहुंचते।
न इन्हें उसकी कविता से मतलब है और न उसे इनकी टिप्पणी से। हरेक की अपनी अपनी ख्वाहिशें हैं और ख्वाहिशें भी ऐसी कि हरेक ख्वाहिश पर दम निकले।
अंदर से कुछ तो निकले, चाहे दम ही निकले।
टिप्पणीकार यही सोच कर डटे हुए हैं।
बड़ा ब्लॉगर की पोस्ट होती ही ऐसी है।
इनके चक्कर में ईमानदार ब्लॉगर्स पर शक की सुई घूम रही है कि कहीं यह भी तो कोई अरमान पाले हुए नहीं घूम रहा है।
हिंदी ब्लॉगिंग ने किसी को कुछ दिया हो या न दिया हो लेकिन सीनियर सिटीज़न्स को या निठल्लों को समय गुज़ारने का अच्छा टूल दे दिया है।
अगर वृद्धाश्रम के बूढ़ों को ब्लॉगिंग से जोड़ दिया जाए तो उनके मन में भी अरमान अंगड़ाईयां लेने लगेंगे। फिर वे कभी शिकायत न करेंगे कि उनके बेटा बहू उनसे मिलने नहीं आते बल्कि वे ख़ुद चाहेंगे कि उनके बेटा बहू उन्हें डिस्टर्ब करने के लिए कभी न आएं। ब्लॉगिंग दूर के रिश्तों को क़रीब इसी तरह करती है कि वह क़रीब के रिश्तों को दूर कर देती है।
उनके रंगीन अरमान घर पर रहने वाले उनके बूढ़े दोस्तों को पता चल गए तो वे भी ख़ुशी ख़ुशी वृद्धाश्रम में जा पहुंचेंगे।
यह कविता चीज़ ही ऐसी है कि समझ में न भी आए तो भी इसका सेंट्रल आयडिया सबको पहले से ही पता रहता है कि इसमें औरत मर्द के रिश्ते का बयान होगा। दुनिया में इसके सिवा और है ही क्या ?
जिसकी समझ में कविता नहीं आती, यह रिश्ता उसकी भी समझ में आता है।
जिसकी समझ में जो आता है, वह उसी पर वाह वाह करता है।
नए अंदाज़ की कविता की जाए तो बड़ा ब्लॉगर बनना बहुत आसान है।
एक बार फ़र्रूख़ाबादी स्टाइल में कविता कर लो, फिर चाहे उसे मिटा भी दो लेकिन उसकी याद किसी के दिल से मिटने वाली नहीं है।
जो ऐसी अमिट याद छोड़ सके, वही है बड़ा ब्लॉगर।
न भी छू रही हो तो पुरानी कविता को ही याद कर लेते हैं।
वाह क्या कविता थी ?
दिल को क्या पूरे के पूरे वुजूद को ही छू कर और हिला कर जो रख दिया था उसने।
आज तक हिल रहे हैं और लुत्फ़ ले रहे हैं।
जवान तो जवान बूढ़े भी कम नहीं हैं।
ज़रा बुड्ढों की दाद देखा कीजिए।
किस किस स्टाइल में दाद देते हैं।
आज का जवान पुराने जवान जैसा नहीं रहा तो आज के बुड्ढों का भी पुराने बुड्ढों की तरह ऐतबार क्या ?
यह तो च्यवनप्राश का देश पहले से ही था और अब तो नई नई तकनीकें और आ गई हैं। कौन जाने किसने क्या खा रखा हो या क्या लगा रखा हो ?
कॉलेज की लड़कियों ने भी एक सर्वे में बताया कि हमें नौजवानों से ज़्यादा डर बुड्ढों से लगता है। ये ‘बेटा बेटा‘ कहकर कहीं भी सहला देते हैं।
जब से कविता हिट हुई है तब से यही डर कविता करने वाली दूसरी ब्लॉगर्स के दिल में भी बैठ गया है कि जाने यह बुड्ढा कहीं उसी कविता की पिनक में तो यहां नहीं आ धमका ?
क्या ज़माना आ गया है कि नारियां कविता करने से पहले और उपमा देने से पहले सत्तर बार सोचती हैं कि इसके भाव ब्लॉगर्स के दिल में कितने गहरे उतरेंगे ?
कहीं ज़्यादा गहरे उतर गए तो जान आफ़त में आ जाएगी।
उपमाएं और अलंकार ही उनकी जान बचा लेते हैं। किसी के पल्ले पड़ती है और किसी के नहीं ?
यह पुराना स्टाइल है कविता का।
नए स्टाइल की कविता में यह सब नहीं चलता। इसमें सब कुछ खुला खेल फ़र्रूख़ाबादी है।
इसमें तो साफ़ बता दिया जाता है कि मेरे महबूब की आंखें हरे कलर की हैं और वह बिन बुलाए चला आता है।
टिप्पणी देने के लिए महबूब स्टाइल में ब्लॉगर्स पहले से ही बिन बुलाए जाने के आदी हैं। सो हरेक को आधे लक्षण तो अपने में ही घटते हुए लगे। बाक़ी रहा आई कलर, सो वह भी बदला जा सकता है। आंख का रंग बदलकर ज़िंदगी रंगीन हो सकती है तो क्या बुरा है ?
जब से नई कविता में महबूब की आंख का रंग पता चला है तो हरेक अपनी आंख का रंग हरा करने पर तुला हुआ है। कोई हरे पत्तों का अर्क़ सुबह शाम डाल रहा है तो किसी ने हरे रंग के लेंस का ही ऑर्डर दे दिया है।
अब सारे टिप्पणीकार जब अगली कविता पढ़ने जाएंगे तो सबकी आंखें हरी हरी होंगी। इतने सारे हरी आंखों वाले देखकर कवयित्री महोदया परेशान हो जाएंगी कि इनमें से मेरा महबूब कौन है ?
और हो सकता है उस दिन असली हरी आंख वाला वहां पहुंचे ही नहीं।
इसी आस में ब्लॉगर्स टिप्पणियां कर रहे हैं वर्ना तो यही ब्लॉगर उससे भी अच्छी कविता पर नहीं पहुंचते।
न इन्हें उसकी कविता से मतलब है और न उसे इनकी टिप्पणी से। हरेक की अपनी अपनी ख्वाहिशें हैं और ख्वाहिशें भी ऐसी कि हरेक ख्वाहिश पर दम निकले।
अंदर से कुछ तो निकले, चाहे दम ही निकले।
टिप्पणीकार यही सोच कर डटे हुए हैं।
बड़ा ब्लॉगर की पोस्ट होती ही ऐसी है।
इनके चक्कर में ईमानदार ब्लॉगर्स पर शक की सुई घूम रही है कि कहीं यह भी तो कोई अरमान पाले हुए नहीं घूम रहा है।
हिंदी ब्लॉगिंग ने किसी को कुछ दिया हो या न दिया हो लेकिन सीनियर सिटीज़न्स को या निठल्लों को समय गुज़ारने का अच्छा टूल दे दिया है।
अगर वृद्धाश्रम के बूढ़ों को ब्लॉगिंग से जोड़ दिया जाए तो उनके मन में भी अरमान अंगड़ाईयां लेने लगेंगे। फिर वे कभी शिकायत न करेंगे कि उनके बेटा बहू उनसे मिलने नहीं आते बल्कि वे ख़ुद चाहेंगे कि उनके बेटा बहू उन्हें डिस्टर्ब करने के लिए कभी न आएं। ब्लॉगिंग दूर के रिश्तों को क़रीब इसी तरह करती है कि वह क़रीब के रिश्तों को दूर कर देती है।
उनके रंगीन अरमान घर पर रहने वाले उनके बूढ़े दोस्तों को पता चल गए तो वे भी ख़ुशी ख़ुशी वृद्धाश्रम में जा पहुंचेंगे।
यह कविता चीज़ ही ऐसी है कि समझ में न भी आए तो भी इसका सेंट्रल आयडिया सबको पहले से ही पता रहता है कि इसमें औरत मर्द के रिश्ते का बयान होगा। दुनिया में इसके सिवा और है ही क्या ?
जिसकी समझ में कविता नहीं आती, यह रिश्ता उसकी भी समझ में आता है।
जिसकी समझ में जो आता है, वह उसी पर वाह वाह करता है।
नए अंदाज़ की कविता की जाए तो बड़ा ब्लॉगर बनना बहुत आसान है।
एक बार फ़र्रूख़ाबादी स्टाइल में कविता कर लो, फिर चाहे उसे मिटा भी दो लेकिन उसकी याद किसी के दिल से मिटने वाली नहीं है।
जो ऐसी अमिट याद छोड़ सके, वही है बड़ा ब्लॉगर।
6 comments:
हा-हा-हा ....
एक मुस्कान लिए पढ़ना शुरू किया और ठहाके से पोस्ट खत्म हुई।
आप इतनी धार-दार हास्य का सृजन कर लेते हैं यक़ीन ही नहीं हो रहा। मैं तो आपको गम्भीर और सिर्फ़ उपदेश देने वाला लेखक समझता था।
पर डॉक्टर साहब आपने टेम्पलेट क्यों चेंज कर लिया, पूरा का पूरा, यहां तक कि फ़ॉन्ट भी हरा-हरा दिखता है। :)
** इस विधा में आपके और लेखों की प्रतीक्षा रहेगी।
@ मनोज जी ,
एक हरी भरी टिप्पणी के लिए शुक्रिया ।
आपकी टिप्पणी भी लेख से पूरी तरह मैच कर रही है।
:)
आप बंगाल में हैं। आपने ज़रूर सुना होगा कि रामकृष्ण परमहंस उपदेश देते हुए बीच बीच में उठकर अपने घर की रसोई में चले जाया करते थे और अपनी पत्नी से पूछते थे कि आज क्या बना रही हो ?
ऐसा वह बार बार करते थे।
किसी शिष्य ने पूछा कि आप ऐसा क्यों है गुरू जी ?, आपका ऐसा करना अच्छा नहीं लगता।
उन्होंने कहा कि पगले सारी इच्छाएं समाप्त हो चुकी हैं। कोई चीज़ इस जग में रोकने वाली बची ही नहीं है। जीवन नौका के पाल को हवा धकेल रही है। इस नौका को खूंटे से बस इसी एक इच्छा की रस्सी बांधे हुए है। यह इच्छा भी न हो तो नौका भी यहां न हो। इच्छा तो खाने पीने की भी नहीं बची है लेकिन इच्छा के रूप को प्रयास करके बनाए हुए हूं ताकि मेरा रूप तुम्हारे बीच बना रहे।
बहुत अच्छी बात सिखाई है उन्होंने।
लोग उपदेशक से बोर हो जाते हैं। क्योंकि एक राग की बात करता है तो दूसरा वैराग्य की। एक मुक्ति और त्याग की बात करता है तो दूसरा आसक्ति और भोग की। एक दिव्य जीवन की बात करता है तो दूसरा इसी जीवन में मज़े उड़ा लेना चाहता है। दोनों में मिज़ाज की कोई मुनासिबत ही नहीं रह जाती है। जब तक लोगों को उपदेशक से मिज़ाज की मुनासिबत न हो तब तक वे उसका उपदेश ग्रहण नहीं कर सकते।
लोग सहज रहें और वे हमें भी अपनी ही तरह का एक ब्लॉगर समझें। इसीलिए हंसी-ठिठौली, दंगा-पंगा और ये सब नौटंकियां करनी पड़ती हैं। इससे हम एक तल पर आ जाते हैं। जहां उनकी भावना को हम समझ सकते हैं और शायद हमारी भावना को भी उनमें से कोई समझ सके।
...और इसमें हमारा भी लाभ है कि इसी बहाने एक और तल पर भी थोड़ा बहुत जी लेते हैं वर्ना तो...
vah dr. jamal aapka bhi kya jalava jamal hai..
aapko parh kar pahale ankhonse, fir hothon se,fir poore badan se na hanse kis bhakuie ki ye majaal hai....
ab tak saamne dikhte huye bh ye marij
docter se kyun na mila bande ko ye malaal hai...
@ Satyendra ji !
:):):)
ha ha ha
Waah ...
kya baat hai.
Ham bhi chahte hain ki aap se mulaqaat hoti rahe.
Most welcome.
मजेदार -
रसीले इरादे ||
यह एक बेहद दिलचस्प पोस्ट है जिससे भाषा पर आपकी पकड़ का पता चलता है। संदेश इतना साफ है कि कोई अनाड़ी न मिलेगा जिसकी समझ में न आया हो।
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