‘करे कोई और भरे कोई‘ कहावत का एक उदाहरण
किसी ब्लॉगर महिला ने कहा कि ‘मुहब्बत चूड़ियों की सलामती की मोहताज नहीं होती‘,
यह सुनते ही हमें मुग़ल ए आज़म जलालुददीन मुहम्मद अकबर का डायलॉग याद आया कि हमारा इंसाफ़ आपकी अंधी ममता का मोहताज नहीं है।
यानि कि इंसाफ़ ममता का मोहताज नहीं है और मुहब्बत चूड़ियों की मोहताज नहीं है।
यहां हरेक ख़ुदमुख्तार है और पूरी तरह बाइख्तियार है।
कल कोई कह सकता है कि ‘मुहब्बत गददे तकिए की मोहताज नहीं है‘
वैसे भी मुहब्बत करने वालों को नींद कहां आती है ?
मुहब्बत का नाम ही रोंगटे खड़े कर देता है।
ऐसी रोमांचकारी कविताएं पढ़ पढ़ कर बूढ़े ब्लॉगर्स के हॉर्मोन फिर से रिसने लगे हैं। कविता लिखता है कोई और चूड़ियां और खाट टूटती है किसी और की।
इसे कहते हैं कि ‘करे कोई और भरे कोई‘।
ख़ैर एक पुरूष ब्लॉगर ने मीडिया और कॉरपोरेट जगत की मिलीभगत का भांडाफोड़ करते हुए आमिर के ‘सत्यमेव जयते‘ की क़लई खोल दी। कहने लगे कि यह सब प्रायोजित है।
अरे भाई, टी.वी. के कार्यक्रम प्रायोजित ही होते हैं और बड़े स्टार के कार्यक्रम के प्रायोजक भी बड़े ही होते हैं। इसमें चौंकाने वाली बात तो कुछ भी नहीं है।
चौंकाने वाली बात तो यह है कि अब हिंदी ब्लॉग एग्रीगेटर और ब्लॉगर्स भी इधर उधर से माल पकड़ रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों तक से माल पकड़ रहे हैं।
कौन कहां से माल पकड़ रहा है ?
इसकी क़लई खोलो तो जानें !!!
...लेकिन अपनी क़लई ख़ुद कैसे खोल दें ?
आमिर ख़ान का नाम लेकर मुख़ालिफ़त कर रहे हैं लेकिन किसी ब्लॉगर की मुख़ालिफ़त का नंबर आए तो कन्नी काट जाएंगे।
ब्लॉगर्स की बहादुरी के रंग भी निराले हैं और ईमानदारी के भी।
बात यह है कि आदमी की अंतरात्मा ईमानदार होती है। उल्टे सीधे धंधों से कमाने के बावजूद अपनी अंतरात्मा को संतुष्ट रखना भी ज़रूरी होता है वर्ना आदमी जी नहीं पाएगा। तब आदमी यह करता है वह ऐसे लोगों की पोल खोलने लगता है जो कि उसका कुछ बिगाड़ न पाएं बल्कि उन्हें पता भी न चले कि किसी ने उनकी मुख़ालिफ़त की है।
इससे आदमी भी सेफ़ रहता है और उसकी अंतरात्मा भी संतुष्ट रहती है।
यह आम ब्लॉगर का रास्ता है जबकि बड़ा ब्लॉगर विश्लेषण और आलोचना की शुरूआत अपने आप से करता है।
सूफ़ी संतों का मार्ग भी यही है। यही चीज़ उन्हें ख़ास बनाती है।
उनका तरीक़ा यह भी है कि भलाई के काम को सराहो।
भलाई के काम को सराहना न मिली तो फिर उसे करने वाले बुराई के काम करेंगे।
बुराई को फैलने से रोकना है तो भलाई को सराहो।
बुराई से लड़ने का काम तो सिर्फ़ बड़ा ब्लॉगर ही कर सकता है लेकिन भलाई को सराहने जैसा आसान काम करना भी आजकल हरेक ब्लॉगर के बस का नहीं है।
किसी ब्लॉगर महिला ने कहा कि ‘मुहब्बत चूड़ियों की सलामती की मोहताज नहीं होती‘,
यह सुनते ही हमें मुग़ल ए आज़म जलालुददीन मुहम्मद अकबर का डायलॉग याद आया कि हमारा इंसाफ़ आपकी अंधी ममता का मोहताज नहीं है।
यानि कि इंसाफ़ ममता का मोहताज नहीं है और मुहब्बत चूड़ियों की मोहताज नहीं है।
यहां हरेक ख़ुदमुख्तार है और पूरी तरह बाइख्तियार है।
कल कोई कह सकता है कि ‘मुहब्बत गददे तकिए की मोहताज नहीं है‘
वैसे भी मुहब्बत करने वालों को नींद कहां आती है ?
मुहब्बत का नाम ही रोंगटे खड़े कर देता है।
ऐसी रोमांचकारी कविताएं पढ़ पढ़ कर बूढ़े ब्लॉगर्स के हॉर्मोन फिर से रिसने लगे हैं। कविता लिखता है कोई और चूड़ियां और खाट टूटती है किसी और की।
इसे कहते हैं कि ‘करे कोई और भरे कोई‘।
ख़ैर एक पुरूष ब्लॉगर ने मीडिया और कॉरपोरेट जगत की मिलीभगत का भांडाफोड़ करते हुए आमिर के ‘सत्यमेव जयते‘ की क़लई खोल दी। कहने लगे कि यह सब प्रायोजित है।
अरे भाई, टी.वी. के कार्यक्रम प्रायोजित ही होते हैं और बड़े स्टार के कार्यक्रम के प्रायोजक भी बड़े ही होते हैं। इसमें चौंकाने वाली बात तो कुछ भी नहीं है।
चौंकाने वाली बात तो यह है कि अब हिंदी ब्लॉग एग्रीगेटर और ब्लॉगर्स भी इधर उधर से माल पकड़ रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों तक से माल पकड़ रहे हैं।
कौन कहां से माल पकड़ रहा है ?
इसकी क़लई खोलो तो जानें !!!
...लेकिन अपनी क़लई ख़ुद कैसे खोल दें ?
आमिर ख़ान का नाम लेकर मुख़ालिफ़त कर रहे हैं लेकिन किसी ब्लॉगर की मुख़ालिफ़त का नंबर आए तो कन्नी काट जाएंगे।
ब्लॉगर्स की बहादुरी के रंग भी निराले हैं और ईमानदारी के भी।
बात यह है कि आदमी की अंतरात्मा ईमानदार होती है। उल्टे सीधे धंधों से कमाने के बावजूद अपनी अंतरात्मा को संतुष्ट रखना भी ज़रूरी होता है वर्ना आदमी जी नहीं पाएगा। तब आदमी यह करता है वह ऐसे लोगों की पोल खोलने लगता है जो कि उसका कुछ बिगाड़ न पाएं बल्कि उन्हें पता भी न चले कि किसी ने उनकी मुख़ालिफ़त की है।
इससे आदमी भी सेफ़ रहता है और उसकी अंतरात्मा भी संतुष्ट रहती है।
यह आम ब्लॉगर का रास्ता है जबकि बड़ा ब्लॉगर विश्लेषण और आलोचना की शुरूआत अपने आप से करता है।
सूफ़ी संतों का मार्ग भी यही है। यही चीज़ उन्हें ख़ास बनाती है।
उनका तरीक़ा यह भी है कि भलाई के काम को सराहो।
भलाई के काम को सराहना न मिली तो फिर उसे करने वाले बुराई के काम करेंगे।
बुराई को फैलने से रोकना है तो भलाई को सराहो।
बुराई से लड़ने का काम तो सिर्फ़ बड़ा ब्लॉगर ही कर सकता है लेकिन भलाई को सराहने जैसा आसान काम करना भी आजकल हरेक ब्लॉगर के बस का नहीं है।
4 comments:
@ विश्लेषण और आलोचना की शुरूआत अपने आप से करता है।
यही तो वह जो कोई करना नहीं चाहता। और अगर यह लोग करने लगे फिर तो वही बात होगी ना कि “मुझसा बुरा न कोय।’
बढ़िया विश्लेषण किया है अच्छा लगा आभार !
उक्त सभी बातों से सहमत हूँ.बस निम्न वाक्य से सहमत नहीं:-
"भलाई के काम को सराहना न मिली तो फिर उसे करने वाले बुराई के काम करेंगे"
भलाई करना या बुराई करना आदमी की सोंच,संस्कार और स्वभाव पर निर्भर करता है.
आदमी कई कारणों से कई बार चुप रहता है.मुझे कबीर का एक दोहा अचानक याद आ गया.सामयिक भी है.दोहा है :-
अति का भला न बोलना ,अति की भली न चुप.
अति का भला न बरसना,अति की भली न धूप.
@ कुसुमेश जी ! चलिए जितनी भी बातों से सहमति है, अच्छा है।
मुझे कबीर जी का कोई दोहा याद नहीं आ रहा है जिसमें उन्होंने भलाई करने वालों की सराहना पर बल दिया हो।
आपको याद हो तो आप बताएं।
सराहना से मनोबल बढ़ता है और भलाई का काम करने वाले का मनोबल बढ़ाना ठीक है या उसके मनोबल को तोड़ना।
इंसान इंसान ही होता है और दिल बहुत नाज़ुक होता है। इक ज़रा सी बात से टूट जाता है।
मनोबल उनका तोड़ना चाहिए जो कि नफ़रत फैलाते हैं या अपने निजी हित के लिए सामूहिक हितों को नुक्सान पहुंचाते हैं।
धन्यवाद !
Please see
http://www.testmanojiofs.com/2012/05/4.html
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